
ऋषि विश्वामित्र और त्रिशंकु की अद्भुत कथा
प्रस्तावना
भारतीय पुराणों और महाकाव्यों में ऋषि-मुनियों की कथाएँ केवल ज्ञान और तपस्या तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि वे देवताओं और मनुष्यों के बीच की कड़ी भी बनती हैं। ऐसी ही एक रोचक और चमत्कारी कथा है त्रिशंकु और ऋषि विश्वामित्र की। यह कहानी इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य की इच्छाएँ कितनी गहरी हो सकती हैं और एक ऋषि की तपस्या और संकल्प किस प्रकार ब्रह्मांड के नियमों को भी चुनौती दे सकते हैं।
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त्रिशंकु कौन थे?
त्रिशंकु का वास्तविक नाम सत्यव्रत था। वे इक्ष्वाकु वंश के एक प्रसिद्ध और शक्तिशाली राजा थे। उनका जीवन वैभव, यश और पराक्रम से भरा हुआ था, लेकिन उनके मन में एक ऐसी इच्छा उत्पन्न हुई जिसने उनके भाग्य की दिशा ही बदल दी।
त्रिशंकु की सबसे बड़ी इच्छा थी कि वे अपने शरीर समेत स्वर्गलोक जाएँ। सामान्यतः मनुष्य की आत्मा मृत्यु के बाद कर्मों के आधार पर स्वर्ग या नरक में जाती है, परंतु त्रिशंकु चाहते थे कि वे जीवित अवस्था में ही अपने देह सहित देवताओं के लोक में प्रवेश करें।
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ऋषि वशिष्ठ से निवेदन
त्रिशंकु सबसे पहले अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ के पास पहुँचे और उनसे बोले –
“गुरुदेव, मैं एक महान यज्ञ करना चाहता हूँ। ऐसा यज्ञ जिससे मैं अपने शरीर सहित स्वर्ग जा सकूँ। कृपया इस यज्ञ की विधि करवाएँ।”
वशिष्ठ ऋषि ने उनकी बात सुनकर उत्तर दिया –
“राजन, यह असंभव है। ब्रह्मांड के नियम ऐसे नहीं हैं कि कोई मनुष्य जीवित अवस्था में शरीर सहित स्वर्ग जा सके। यह प्रकृति के विरुद्ध है। मैं इस कार्य में तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता।”
त्रिशंकु निराश हुए, लेकिन उनकी इच्छा इतनी प्रबल थी कि वे हार मानने को तैयार नहीं थे।
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वशिष्ठ के पुत्रों का अपमान
त्रिशंकु वशिष्ठ के शिष्यों और पुत्रों के पास गए और उनसे वही निवेदन किया। परंतु उन्होंने भी कहा –
“राजन, यह कार्य अनुचित है। आप स्वर्ग जाना चाहते हैं तो पुण्य कर्म कीजिए, दान दीजिए और ईश्वर की भक्ति कीजिए। परंतु शरीर सहित स्वर्ग जाना संभव नहीं है।”
त्रिशंकु को यह अस्वीकार अपमान जैसा लगा। वे क्रोधित होकर बोले –
“यदि तुम सब मेरी सहायता नहीं करोगे, तो मैं किसी अन्य ऋषि के पास जाऊँगा। एक न एक दिन मेरी इच्छा पूरी होगी।”
यह सुनकर वशिष्ठ के पुत्र बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने त्रिशंकु को शाप दे दिया –
“राजन! तुम्हारा शरीर इतना कुरूप और अपवित्र हो जाएगा कि कोई भी तुम्हें देखना नहीं चाहेगा।”
शाप लगते ही त्रिशंकु का रूप बदल गया। उनका सुंदर और तेजस्वी शरीर काला, कुरूप और भयानक हो गया।
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विश्वामित्र से भेंट
अपमानित और शापित त्रिशंकु अब निराश होकर महर्षि विश्वामित्र के पास पहुँचे। विश्वामित्र वशिष्ठ के प्रतिद्वंद्वी थे। जब उन्होंने त्रिशंकु की व्यथा सुनी तो वे भीतर ही भीतर प्रसन्न हुए।
वे बोले –
“राजन, यदि तुम्हें अपने शरीर सहित स्वर्ग जाना है, तो मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। तुम मेरे आश्रम में रहो और एक महान यज्ञ की तैयारी करो।”
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विश्वामित्र का यज्ञ
विश्वामित्र ने अपनी अपार तपस्या और शक्ति से यज्ञ आरंभ किया। देवताओं को आमंत्रित किया गया, मंत्रोच्चारण हुआ और अग्नि में आहुतियाँ दी गईं।
विश्वामित्र ने अपने संकल्प से त्रिशंकु को आकाश की ओर उठाना शुरू किया। धीरे-धीरे त्रिशंकु ऊपर उठने लगे।
त्रिशंकु प्रसन्न होकर बोले –
“मुझे दिख रहा है, मैं स्वर्गलोक की ओर बढ़ रहा हूँ!”
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देवताओं का विरोध
जब त्रिशंकु स्वर्गलोक के द्वार के पास पहुँचे तो इंद्र और अन्य देवता क्रोधित हो गए।
उन्होंने कहा –
“यह मनुष्य अपने शरीर सहित स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। यह देवताओं के नियमों का उल्लंघन है।”
इंद्र ने त्रिशंकु को धक्का देकर नीचे गिरा दिया।
त्रिशंकु भयभीत होकर चिल्लाए –
“महाराज विश्वामित्र! मेरी रक्षा कीजिए!”
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विश्वामित्र का प्रतिकार
जब त्रिशंकु नीचे गिरने लगे तो विश्वामित्र ने क्रोध और संकल्प से अपनी तपस्या की शक्ति का उपयोग किया।
उन्होंने कहा –
“त्रिशंकु! तुम बीच में ही रुक जाओ। न तुम पृथ्वी पर गिरोगे और न ही स्वर्ग में जाओगे। मैं तुम्हारे लिए एक नया लोक रचता हूँ।”
विश्वामित्र ने अपने संकल्प से नए नक्षत्र, नई दिशाएँ और एक अलग लोक की सृष्टि की।
उन्होंने कहा –
“यह त्रिशंकु लोक होगा। इसमें तुम हमेशा देह सहित रहोगे। यही तुम्हारा स्वर्ग है।”
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देवताओं का हस्तक्षेप
देवताओं ने विश्वामित्र से कहा –
“ऋषिवर, आप ब्रह्मांड के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। हर जीव का स्थान निश्चित है। इस प्रकार नया लोक बनाना उचित नहीं है।”
विश्वामित्र ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया –
“त्रिशंकु मेरा भक्त है। मैं उसकी इच्छा पूरी करूँगा। चाहे मुझे पूरी सृष्टि से युद्ध क्यों न करना पड़े।”
देवता भयभीत हुए। उन्होंने बीच का समाधान निकाला –
“ठीक है, त्रिशंकु अपने लोक में रहेगा, लेकिन वह देवताओं के समान नहीं होगा। उसे अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुख दोनों का अनुभव करना होगा।”
विश्वामित्र ने यह शर्त मान ली।
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त्रिशंकु लोक का रहस्य
आज भी ज्योतिष और पुराणों में कहा जाता है कि आकाश में जो कुछ नक्षत्र और तारामंडल दिखते हैं, उनमें से कुछ विश्वामित्र द्वारा बनाए गए हैं। उन्हें त्रिशंकु लोक कहा जाता है।
त्रिशंकु की यह कथा इस बात का प्रतीक है कि –
मनुष्य की इच्छाएँ कितनी प्रबल हो सकती हैं।
तपस्वी ऋषि की संकल्प शक्ति कितनी महान हो सकती है।
और साथ ही यह भी कि प्रकृति और देवताओं के नियमों से परे जाना हमेशा उचित नहीं होता।
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निष्कर्ष
त्रिशंकु की कहानी केवल एक राजा और ऋषि की कथा नहीं है, बल्कि यह गहन दार्शनिक संदेश देती है।
मनुष्य की इच्छाएँ असीमित होती हैं, परंतु उन्हें धर्म और प्रकृति के नियमों के अनुरूप होना चाहिए।
गुरु का अपमान करने से जीवन में विपत्ति आती है।
और एक सच्चे ऋषि की शक्ति ब्रह्मांड के नियमों तक को चुनौती दे सकती है
youtube पर देखे कौन था त्रिशंकु जो लटक गया था स्वर्ग और नरक के बीच
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