
ऋषि अगस्त्य की अनसुनी चमत्कारिक कहानी – समुद्र पान का रहस्य
ऋषि अगस्त्य की चमत्कारिक कहानी
परिचय
भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनि केवल वेद-पुराण पढ़ाने वाले साधु नहीं थे, बल्कि वे प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने वाले दिव्य पुरुष भी थे। उन्होंने अपने तप, साधना और ज्ञान से असंभव को संभव बनाया।
इन्हीं ऋषियों में एक महान ऋषि थे अगस्त्य मुनि। वे सप्तऋषियों में से एक माने जाते हैं और उनके बारे में कहा जाता है कि उनके बिना सृष्टि का कोई भी कार्य पूर्ण नहीं होता था।
आज हम जिस कथा का उल्लेख कर रहे हैं, वह है – ऋषि अगस्त्य और समुद्र पान की अनसुनी कहानी, जिसने पूरी सृष्टि को हिला दिया था।
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ऋषि अगस्त्य का परिचय
ऋषि अगस्त्य का जन्म महर्षि मিত্র और वरुण की तपस्या से हुआ। उन्हें देवताओं ने विशेष कार्यों के लिए पृथ्वी पर भेजा था।
वे अपनी गंभीर विद्या, शक्ति और नम्रता के लिए प्रसिद्ध थे।
ऋग्वेद और यजुर्वेद के कई मंत्र उन्हीं द्वारा रचे गए माने जाते हैं।
दक्षिण भारत में वे संस्कृति के प्रसारक कहलाए और उन्हें द्रविड़ संस्कृति का आधार माना जाता है।
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समुद्र का अभिमान
पुराणों के अनुसार, प्राचीन काल में समुद्र को अपने विशाल रूप और अपार जल का अभिमान हो गया था।
वह सोचता था –
“देवता भी मेरा मंथन करते हैं, असुर भी मेरी गहराई से भयभीत रहते हैं। मेरे बिना संसार की कल्पना भी नहीं हो सकती।”
धीरे-धीरे समुद्र का यह अहंकार इतना बढ़ गया कि उसने ऋषियों और देवताओं तक का अनादर करना शुरू कर दिया। जब भी ऋषि समुद्र तट पर तपस्या करने बैठते, तो समुद्र अपने जल को उफान पर ले जाकर उनकी साधना भंग करने लगता।
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देवताओं की चिंता
देवताओं ने यह देखा और चिंतित हो उठे। वे जानते थे कि यदि समुद्र का अहंकार यूँ ही बढ़ता गया तो पृथ्वी पर संतुलन बिगड़ जाएगा।
वे सभी मिलकर भगवान विष्णु के पास पहुँचे और प्रार्थना की –
“हे नारायण! समुद्र अपने गर्व में इतना डूब गया है कि अब वह किसी की मर्यादा नहीं मानता। यदि इसे समय रहते संयमित नहीं किया गया तो इसका परिणाम भयंकर होगा।”
भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले –
“इस कार्य के लिए एक ही ऋषि योग्य हैं — ऋषि अगस्त्य। उनकी तपस्या का बल और संकल्प समुद्र के अभिमान को शांत कर सकता है।”
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ऋषि अगस्त्य का संकल्प
देवता ऋषि अगस्त्य के पास पहुँचे और विनम्रता से निवेदन किया।
ऋषि अगस्त्य ने ध्यान लगाया और समुद्र की स्थिति का अनुभव किया। उन्होंने गहरी सांस ली और बोले –
“अभिमान चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, धर्म और तप के आगे उसका नाश निश्चित है। यदि समुद्र मर्यादा नहीं मानता, तो मैं स्वयं उसे पान कर लूँगा।”
देवता आश्चर्यचकित रह गए। वे सोच भी नहीं सकते थे कि कोई साधु समुद्र जैसा विशाल जलस्रोत पी सकता है।
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समुद्र पान का चमत्कार
ऋषि अगस्त्य ने आकाश की ओर हाथ उठाए, मंत्रों का उच्चारण किया और समुद्र की ओर मुख करके बोले –
“हे समुद्र! यदि तू मर्यादा नहीं सीखेगा, तो मैं तुझे अपने भीतर समा लूँगा।”
यह कहते ही उन्होंने एक लंबा श्वास लिया। आश्चर्यजनक रूप से समुद्र का जल उनके मुख की ओर खिंचने लगा।
कुछ ही क्षणों में पूरा समुद्र सूख गया। उसकी लहरें थम गईं, उसकी गहराई खाली हो गई और वहाँ रेत का विस्तार दिखाई देने लगा।
देवता, गंधर्व और समस्त प्राणी यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए।
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समुद्र का विनम्र होना
समुद्र का गर्व चूर-चूर हो चुका था। वह देव रूप लेकर प्रकट हुआ और विनम्र होकर ऋषि अगस्त्य के चरणों में गिर पड़ा। उसने folded hands से कहा –
“हे मुनिवर! मैं अपने अभिमान में अंधा हो गया था। मुझे क्षमा करें। मैं वचन देता हूँ कि अब से मैं सदैव धर्म और मर्यादा का पालन करूँगा।”
ऋषि अगस्त्य ने करुणा भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा –
“स्मरण रखो, शक्ति तभी उपयोगी है जब वह धर्म के साथ जुड़ी हो। अहंकार से विनाश ही होता है।”
फिर उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से समुद्र का जल पुनः प्रकट कर दिया।
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समुद्र पान के बाद की घटनाएँ
समुद्र पान की इस घटना ने तीन बड़े प्रभाव डाले –
1. देवताओं का विश्वास: देवताओं को यह अनुभव हुआ कि यदि सृष्टि में कोई असंतुलन होगा, तो ऋषियों के तप से उसका समाधान अवश्य होगा।
2. समुद्र की मर्यादा: समुद्र ने वचन दिया कि वह अब कभी भी अहंकार नहीं करेगा और ऋषियों की साधना में बाधा नहीं बनेगा।
3. ऋषि अगस्त्य की महिमा: यह घटना ऋषि अगस्त्य की दिव्य शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण बन गई और उन्हें “प्रकृति के संतुलनकर्ता” कहा जाने लगा।
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दक्षिण भारत में ऋषि अगस्त्य का योगदान
ऋषि अगस्त्य ने केवल समुद्र पान ही नहीं किया, बल्कि दक्षिण भारत की भूमि पर वेदों और संस्कृति का प्रसार किया।
उन्होंने द्रविड़ भाषा और वेदों के बीच सेतु बनाया।
वे तमिल साहित्य के आद्य ऋषि माने जाते हैं।
दक्षिण के कई मंदिरों और परंपराओं में आज भी उनकी पूजा की जाती है।
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इस कथा से सीख
1. अहंकार चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका अंत निश्चित है।
2. सच्चा तप और संकल्प प्रकृति को भी नियंत्रित कर सकता है।
3. ऋषि-मुनि केवल साधु नहीं थे, बल्कि सृष्टि के संतुलनकर्ता भी थे।
4. धर्म के मार्ग पर चलना ही शक्ति का सही उपयोग है।
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