
जब श्रीकृष्ण ने खुद को श्राप दिया – एक अनसुनी कथा
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कृष्ण – केवल लीला पुरुष नहीं, वे संवेदना के भी परम embodiment हैं
श्रीकृष्ण का नाम सुनते ही हमारे मन में मुरली बजाते, रास रचाते या अर्जुन को गीता का उपदेश देते भगवान की छवि बनती है। परंतु क्या आप जानते हैं कि श्रीकृष्ण के जीवन में एक ऐसा क्षण भी आया जब उन्होंने स्वयं को श्राप दिया?
यह घटना न तो महाभारत में विस्तार से वर्णित है और न ही भागवत पुराण में। यह कथा दक्षिण भारत की मौखिक परंपराओं और नरसिंह पुराण की दुर्लभ व्याख्याओं* में छिपी हुई है।
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जब द्वारका में भक्ति की जगह अभिमान आ गया
महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण द्वारका लौट आए थे। उन्होंने यादवों को संगठित किया, सभ्यता का विस्तार किया और एक आदर्श राज्य की स्थापना की। परंतु समय बीतने के साथ, द्वारका के यादवों में अहंकार बढ़ने लगा।
एक दिन कुछ यादव युवकों ने एक साधु का उपहास किया। उन्होंने मस्ती में एक युवक को स्त्री के वस्त्र पहना दिए और साधुओं से पूछा,
> “मुनिवर! बताइए यह देवी पुत्र को जन्म देगी या पुत्री को?”
साधु ने आँखें मूँद लीं और बोले,
> “यह बालक एक लोहा जन्म देगा जो पूरे वंश का अंत करेगा। और तुम सब यह विनाश अपनी आंखों से देखोगे।”
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श्रीकृष्ण को जब सत्य का आभास हुआ
जब श्रीकृष्ण को यह बात बताई गई, तो वे मौन हो गए। उन्होंने वह लोहा मंगवाया और कहा कि इसे चूर्ण कर समुद्र में फेंक दो। परंतु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।
जिस लोहा को चूर्ण किया गया, उसका एक अंश नहीं पिसा। वह एक नुकीली कील के रूप में समुद्र में बह गया।
श्रीकृष्ण समझ चुके थे — अब कुछ रुकने वाला नहीं।
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योगमाया में भी त्रुटि नहीं होती
श्रीकृष्ण जान गए थे कि उनका कार्य समाप्त हो चुका है। वे गीता में स्वयं कहते हैं:
> “परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्।”
लेकिन इस बार विनाश का कारण दुष्टता नहीं, बल्कि घमंड था। और इस घमंड का केंद्र था — उनका अपना वंश।
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द्वारका का प्रलय – श्राप की शुरुआत
कुछ वर्षों बाद, यादवों में आपसी द्वेष बढ़ा। एक दिन मदिरा पीकर एक-दूसरे पर लाठियाँ चलने लगीं। बात इतनी बढ़ी कि वे जिस मिट्टी की लाठी उठा रहे थे — वह उसी लौह की चूर्ण से बनी थी।
जिस चूर्ण को समुद्र ने उगल दिया था, वह घास के रूप में जम गया था — और अब वही यादवों के वध का अस्त्र बन रहा था।
कुछ ही घंटों में पूरे यादव वंश का संहार हो गया।
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श्रीकृष्ण का आत्मचिंतन — और वह दुर्लभ श्राप
कृष्ण सब देख रहे थे — मौन, निष्पक्ष, लेकिन भीतर से व्यथित।
वे एकांत में चले गए — जंगलों की ओर।
वहाँ बैठकर उन्होंने ध्यान किया और कहा:
> “हे समय! तू ही परम है। मेरे हाथों धर्म स्थापित हुआ, परंतु मैं अपने वंश को अहंकार से न बचा सका।
इसलिए मैं स्वयं को श्राप देता हूँ — कि जब-जब मैं जन्म लूंगा, मेरा समीपवर्ती ही मेरा अंत करेगा, और मैं मोह में उलझा रहूंगा।”
यही कारण है कि त्रेता में राम को वियोग मिला, द्वापर में कृष्ण को अपने वंश का विनाश, और कलियुग में ईश्वर ‘अनाम’ बनकर घूमते हैं — पर पहचाने नहीं जाते।
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श्रीकृष्ण की मृत्यु – एक सामान्य बाण, असामान्य रहस्य
कुछ समय बाद श्रीकृष्ण एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। उन्होंने स्वयं को समर्पण की अवस्था में रखा था।
एक शिकारी — जरा — जो दूर से उन्हें हिरण समझ बैठा, ने बाण चला दिया।
बाण उनके पैर में लगा।
कृष्ण मुस्कुराए, जरा को बुलाया और कहा,
> “तू ही वह माध्यम था, जिसका मुझे इंतज़ार था। चल, अब समय पूर्ण हुआ।”
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दिव्य शरीर का विलय और धरती का शोक
श्रीकृष्ण का शरीर धीरे-धीरे ज्योति में विलीन हो गया।
धरती कांप गई। समुद्र उफान मारने लगा।
द्वारका नगर धीरे-धीरे समुद्र में समा गया।
कहते हैं कि आज भी गुजरात के तट के नीचे द्वारका नगरी के अवशेष मिलते हैं — जो इस कथा को सच बनाते हैं।
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क्या आपने सोचा है… श्रीकृष्ण ने स्वयं को श्राप क्यों दिया?
यह प्रश्न गूढ़ है, पर उत्तर स्पष्ट:
> “ईश्वर भी तब आत्मावलोकन करता है, जब उसके कार्यों से किसी को पीड़ा होती है।”
श्रीकृष्ण ने श्राप नहीं दिया — उन्होंने अपने कर्तव्य और ममता के द्वंद्व को स्वीकारा।
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सीख जो यह कथा हमें देती है
क्रम जीवन की शिक्षा
1 घमंड चाहे किसी का भी हो — उसका अंत निश्चित है।
2 ईश्वर की लीला में न्याय छिपा है, पर वह हमेशा समझ में नहीं आता।
3 आत्मावलोकन और पश्चाताप, महापुरुषों का आभूषण होता है।
4 हर कार्य का परिणाम समय जरूर देता है, भले वो कुछ वर्षों बाद ही क्यों न हो।
5 जो सत्य से डिगे बिना निर्णय करता है, वही सच्चा योगी है — जैसे श्रीकृष्ण।
देखे भक्त धन्ना सेठ की कहानी https://www.youtube.com/watch?v=Gj3P14xjAZs