
“नारद मुनि और भगवान विष्णु की माया”
यह कथा भक्तिमय भी है और रोमांचकारी भी।
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पार्ट 1 : नारद मुनि का गर्व
नारद मुनि देवर्षि कहलाते हैं – वे तीनों लोकों में घूमते हैं, हर जगह भगवान का नाम गाते हैं – “नारायण… नारायण…!” उनकी वीणा से हमेशा भक्ति की धुन निकलती थी। वे स्वयं को भगवान के सबसे बड़े भक्त मानते थे।
एक बार नारद मुनि को अपने मन में अहंकार आने लगा। वे सोचने लगे –
“तीनों लोकों में जितने भी भक्त हैं, उन सबमें सबसे महान भक्त मैं ही हूँ। क्योंकि हर समय मैं भगवान विष्णु का नाम लेता हूँ, उनके गुण गाता हूँ और संसार को भक्ति की राह दिखाता हूँ।”
भगवान विष्णु सर्वज्ञानी थे। उन्होंने नारद मुनि का मन पढ़ लिया। वे सोचने लगे – “नारद मेरे प्रिय भक्त हैं, लेकिन यदि उनके मन में अभिमान घर कर गया तो भक्ति की शुद्धता नष्ट हो जाएगी। उन्हें एक लीला दिखाना आवश्यक है ताकि उनका अहंकार दूर हो।”
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“नारद मुनि और भगवान विष्णु की माया”
पार्ट 2 : विष्णु की परीक्षा
एक दिन भगवान विष्णु ने नारद मुनि को बुलाया और मुस्कुराकर बोले –
“नारद, तुम सचमुच मेरे महान भक्त हो। लेकिन क्या तुम मेरे लिए एक छोटा-सा कार्य करोगे?”
नारद मुनि तुरंत बोले – “प्रभु! आपके लिए तो मैं अग्नि में कूद सकता हूँ, यह तो बहुत साधारण बात है।”
विष्णु ने कहा – “ठीक है, तो इस कलश में भरा हुआ तेल तीनों लोकों का चक्कर लगाकर ले आओ, लेकिन ध्यान रहे कि एक भी बूँद तेल बाहर न गिरे।”
नारद मुनि ने कलश उठाया और चल पड़े। उनका पूरा ध्यान केवल तेल पर था। उन्होंने सावधानी से धरती, आकाश और पाताल का चक्कर लगाया और अंततः वापस आ गए। एक भी बूँद तेल बाहर नहीं गिरी।
विष्णु ने मुस्कुराकर पूछा – “नारद, तुमने इस यात्रा में कितनी बार मेरा नाम लिया?”
नारद थोड़ा चौंक गए – “प्रभु… सच कहूँ तो इस कार्य में इतना ध्यान लगा कि मैं आपका नाम ही नहीं ले पाया।”
भगवान विष्णु ने समझाया – “नारद, यही तो अंतर है। तुम मेरे भक्त हो, लेकिन अभी भी मुझमें पूरी तरह लीन नहीं हो पाए। सच्चा भक्त वही है, जो विपत्ति और कठिन कार्यों के बीच भी निरंतर प्रभु का नाम जपे।”
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“नारद मुनि और भगवान विष्णु की माया”
पार्ट 3 : माया का अद्भुत खेल
कुछ दिन बाद नारद मुनि ने पुनः गर्व किया कि अब तो उन्होंने सबक सीख लिया है और वे सबसे बड़े भक्त हैं।
विष्णु ने मुस्कुराकर पुनः लीला रच दी। एक दिन नारद मुनि एक सुंदर राज्य में पहुँचे। वहाँ उन्होंने राजा की अप्सरा-समान कन्या को देखा। नारद मुनि का मन विचलित हो गया। उन्हें पहली बार सांसारिक आकर्षण ने छुआ।
वे सोचने लगे – “यदि इस कन्या से मेरा विवाह हो जाए तो जीवन धन्य हो जाएगा।”
नारद तुरंत भगवान विष्णु के पास पहुँचे और बोले – “प्रभु! मुझे यह कन्या पत्नी के रूप में चाहिए। आप उसकी वरमाला मेरे गले में डलवा दीजिए।”
विष्णु मुस्कुराए और बोले – “नारद, तुम्हें वही मिलेगा जो तुम्हारे लिए उचित है।”
स्वयंवर का दिन आया। कन्या ने सभा में प्रवेश किया। सभी राजकुमार अधीर होकर खड़े थे। नारद ने सोचा कि कन्या सीधा उनके पास आकर वरमाला पहना देगी। लेकिन हुआ कुछ और – कन्या ने विष्णु के ही स्वरूप को देखा और उन्हीं को पति चुन लिया।
नारद क्रोध से तिलमिला उठे। उन्होंने दर्पण में देखा तो पाया कि उनका मुख बंदर जैसा हो गया था। सभा में सभी उनका उपहास करने लगे। नारद समझ गए कि यह सब विष्णु की लीला है।
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“नारद मुनि और भगवान विष्णु की माया”
पार्ट 4 : अहंकार का नाश
नारद मुनि रोते हुए भगवान विष्णु के पास पहुँचे और बोले –
“प्रभु! आपने ऐसा क्यों किया? मैं तो आपका सबसे बड़ा भक्त हूँ। आपने मुझे सबके सामने अपमानित क्यों किया?”
विष्णु ने करुणा से कहा –
“नारद, तुम्हें यह समझना था कि भक्ति का मार्ग अहंकार से भरा नहीं हो सकता। जब तक भक्त के मन में ‘मैं महान हूँ’ की भावना रहेगी, तब तक वह सच्चा भक्त नहीं बन सकता।
“तुम्हारा अपमान तुम्हें गिराने के लिए नहीं, बल्कि तुम्हें अहंकार से ऊपर उठाने के लिए था।”
नारद मुनि का भ्रम दूर हो गया। वे समझ गए कि वास्तव में भक्त वही है जो प्रभु की इच्छा को स्वीकार करे, चाहे वह सुख दे या दुख। वे रो पड़े और बोले –
“प्रभु, अब मुझे सच्चा भक्ति मार्ग मिल गया है। अब से मैं केवल आपके नाम में ही लीन रहूँगा, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों।”
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“नारद मुनि और भगवान विष्णु की माया”
पार्ट 5 : निष्कर्ष और शिक्षा
यह कथा हमें सिखाती है कि –
भक्ति का मार्ग अहंकार से रहित होना चाहिए।
सच्चा भक्त वही है जो हर परिस्थिति में प्रभु का नाम जपे।
भगवान कभी अपने भक्त का अपमान नहीं करते, बल्कि उनकी परीक्षा लेकर उन्हें और ऊँचा उठाते हैं।
देवर्षि नारद का यह अनुभव हमें दिखाता है कि भगवान की माया कितनी अद्भुत है और वह केवल भक्त की भलाई के लिए ही काम करती है।
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