
प्रारंभ — जब युद्ध बना था परीक्षा की भूमि
महाभारत का युद्ध केवल शक्ति और रणनीति का नहीं, बल्कि आत्मा, धर्म और चरित्र का युद्ध था। ऐसा ही एक प्रसंग जुड़ा है गुरु द्रोणाचार्य से — जिन्हें कौरव और पांडव दोनों ने गुरु माना था।
गुरु द्रोण को संसार का सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर और आचार्य माना जाता था, लेकिन युद्ध के एक मोड़ पर उनकी निष्ठा, करुणा और ज्ञान — तीनों की एक साथ परीक्षा हुई। यह कहानी उसी समय की है, जब धर्म और मोह के बीच उनका अन्तर्द्वंद प्रारंभ हुआ।
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गुरु द्रोणाचार्य और उनका धर्म संकट
गुरु द्रोण की भूमिका
जब महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ, गुरु द्रोण ने कौरवों की ओर से युद्ध स्वीकार किया। उनके इस निर्णय के पीछे कई कारण थे:
1. राजऋण — हस्तिनापुर ने उन्हें सम्मान, स्थान और धन दिया।
2. पुत्र अश्वत्थामा — जो कौरवों के सबसे बड़े योद्धाओं में एक था।
3. कृपाचार्य और भीष्म के साथ वैचारिक मेल
परंतु युद्ध के सातवें दिन के बाद से उनका मन विचलित होने लगा। पांडवों की सत्यनिष्ठा और अर्जुन की समर्पण भावना ने उन्हें भीतर से झकझोर दिया।
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चमत्कारी घटना का प्रारंभ
युद्ध के 10वें दिन, गुरु द्रोण ने असाधारण बल का प्रदर्शन किया। उन्होंने अकेले ही पांडवों की सेना को विचलित कर दिया। अर्जुन भी उनके सामने स्वयं को रोक नहीं पा रहा था।
तभी श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सुझाव दिया कि गुरु द्रोण की मृत्यु के बिना यह युद्ध आगे नहीं बढ़ सकता। परंतु द्रोण को युद्ध से विमुख करना आसान नहीं था। उन्होंने युद्ध में केवल एक चीज को त्यागने की कसम खाई थी:
> “जब तक मैं अपने पुत्र अश्वत्थामा के जीवित होने की सूचना पाऊँगा, मैं अपना शस्त्र नहीं छोड़ूँगा।”
योजना — अश्वत्थामा की मृत्यु की झूठी सूचना
श्रीकृष्ण ने यह जानते हुए भी कि यह एक नीतियुक्त छल होगा, युधिष्ठिर को सुझाव दिया कि उन्हें गुरु द्रोण से कह देना चाहिए — “अश्वत्थामा मारा गया।”
परंतु सत्यवादी युधिष्ठिर झूठ नहीं बोल सकते थे। तब श्रीकृष्ण ने एक चमत्कारी उपाय किया — भीम से कहा गया कि वह एक हाथी को मार दे जिसका नाम था “अश्वत्थामा”।
जैसे ही हाथी मारा गया, युधिष्ठिर ने गुरु द्रोण से कहा:
> “अश्वत्थामा हतो… (धीरे से) नर वा कुंजरो।”
द्रोण ने केवल “अश्वत्थामा हतो” सुना, बाकी श्रीकृष्ण ने शंखध्वनि में दबा दिया।
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गुरु द्रोण का मोह त्याग
यह सुनते ही गुरु द्रोणाचार्य का मन युद्ध से हट गया। वे घोड़े पर से उतरकर भूमि पर बैठ गए। उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और ध्यान में लीन हो गए। यह क्षण युद्ध का सबसे आध्यात्मिक क्षण था — जहाँ एक योद्धा गुरु अपने भीतर झांकने लगा।
गुरु द्रोणाचार्य ने वही किया जो एक सच्चा ज्ञानी करता है — उन्होंने आत्मस्वरूप का ध्यान किया और अपनी आत्मा को परमात्मा में लगाने लगे।
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गुरु द्रोणाचार्य की अंतिम परीक्षा और चमत्कार
जबगुरु द्रोणाचार्य ध्यान में लीन थे, धृष्टद्युम्न (द्रुपद का पुत्र) ने उन्हें मारने का निश्चय किया। यह वही धृष्टद्युम्न थे जिन्हें द्रोण ने ही शस्त्रविद्या सिखाई थी।
परंतु जैसे ही वह तलवार लेकर आगे बढ़े, अचानक एक अद्भुत प्रकाश गुरु द्रोण के चारों ओर फैल गया। उनकी आत्मा जैसे शरीर से पहले ही मुक्त हो चुकी थी।
कहा जाता है कि जैसे ही धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काटा, गुरु द्रोण का शरीर भूमि पर गिरा, लेकिन उनके मुख पर शांति, तृप्ति और ज्ञान की ज्योति थी।
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गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु नहीं, उनकी मुक्ति थी
गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु नहीं हुई थी, उन्होंने अपने शरीर को छोड़ने से पहले ही आत्मा को मुक्त कर दिया था। यह वही अवस्था थी जो एक सिद्ध योगी को प्राप्त होती है।
उनके शरीर से एक तेजस्वी प्रकाश निकला, जिसने आकाश को रोशन कर दिया और कुछ ही क्षणों में अदृश्य हो गया।
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गुरु द्रोणाचार्य के बाद का प्रभाव
1. अर्जुन रो पड़े — उन्होंने अपने गुरु की ऐसी अंत को देखकर युद्ध की निरर्थकता को अनुभव किया।
2. अश्वत्थामा क्रोधित हुए — उन्होंने अपने पिता की इस मृत्यु का बदला लेने की कसम खाई और आगे चलकर पांडवों के पुत्रों की हत्या की।
3. युधिष्ठिर को जीवनभर ग्लानि रही — भले उन्होंने पूरा सत्य न छुपाया, लेकिन उस क्षण का अर्धसत्य उन्हें जीवन भर कचोटता रहा।
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निष्कर्ष — क्या थी इस चमत्कारी कहानी की सीख?
धर्म और अधर्म के बीच का अंतर केवल बाहरी आचरण नहीं, आंतरिक भावना में होता है।
गुरु द्रोणाचार्य जैसे योद्धा भी अंत में आत्मज्ञान को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं।
श्रीकृष्ण द्वारा किया गया यह ‘नीतियुक्त छल’ उस समय का सबसे गूढ़ धर्म निर्णय था।
प्रत्येक आत्मा को एक दिन यह निर्णय लेना होता है — कि क्या मोह के साथ जिया जाए या मुक्ति की ओर बढ़ा जाए।
youtube पर देखे गुरु द्रोण की मृत्यु कैसे हुई https://www.youtube.com/watch?v=YfO9Eal788g
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