
🪔 कृपाचार्य की अमरता और युद्ध के बाद का रहस्य
🧿 परिचय (
महाभारत युद्ध के मुख्य योद्धाओं में से एक थे कृपाचार्य, जिन्हें “कृप” भी कहा जाता है। वे उन गिने-चुने पात्रों में से एक हैं जिन्हें महाभारत युद्ध के बाद भी अमरत्व प्राप्त हुआ। परंतु उनकी कहानी युद्ध से पहले और बाद की घटनाओं में कहीं खो सी गई। इस लेख में हम जानेंगे — गुरुकृपाचार्य के जन्म से लेकर उनके रहस्यमयी अमर जीवन तक की कथा, जो महाभारत के ज्ञात पात्रों में सबसे रहस्यमयी और चमत्कारी मानी जाती है।
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🌿 कृपाचार्य का जन्म और चमत्कारी आरंभ
गुरुकृपाचार्य का जन्म किसी सामान्य मनुष्य की तरह नहीं हुआ था। उनकी उत्पत्ति शरदान्वा गौतम नामक एक महान ऋषि के तपोबल से हुई।
शरदान्वा ने वन में कठोर तपस्या की थी। एक दिन उन्होंने देखा कि राजा शांतनु के सेनापति शरद्वान अत्यंत रूपवती एक राजकुमारी के साथ वन में भटक रहे हैं। जब वह तपोबल भंग हुआ तो उनके शरीर से दो बूँदें गिरीं — एक नर और एक नारी। इन्हीं से उत्पन्न हुए कृप और कृपी। कृप को गुरु कृपी के पति द्रोणाचार्य के समकक्ष विद्या मिली। कृप का पालन-पोषण हस्तिनापुर के राजा ने किया और उन्हें शाही राजगुरु बना दिया गया।
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⚔️ महाभारत युद्ध में कृपाचार्य की भूमिका
महाभारत युद्ध में गुरुकृपाचार्य कौरव पक्ष के साथ खड़े हुए, क्योंकि वे हस्तिनापुर के राजगुरु थे। यद्यपि वे धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे, लेकिन उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया। युद्ध के दौरान कृप ने अश्वत्थामा के साथ मिलकर कई रात्रि युद्ध किए, जो युद्धनीति के विरुद्ध माने जाते थे।
उनका योगदान युद्ध में इतना अधिक था कि स्वयं भीष्म पितामह ने कहा था, “कृप, युद्ध नीति में निष्णात और शास्त्रों के ज्ञाता हैं।” लेकिन इन सब के बावजूद युद्ध के अंत तक वे जीवित रहे — यह अपने आप में एक चमत्कार था।
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🌌 कृपाचार्य का अमरत्व — एक दिव्य वरदान
जब युद्ध समाप्त हुआ, तब भगवान व्यास ने उन सात व्यक्तियों को अमरत्व प्रदान किया जो कलियुग के अंत तक जीवित रहेंगे। ये थे:
1. हनुमान
2. विभीषण
3. परशुराम
4. अश्वत्थामा
5. गुरुकृपाचार्य
6. राजा बली
7. महर्षि मार्कण्डेय
गुरुकृपाचार्य को यह वरदान इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने धर्म और अधर्म के बीच बहुत ही सूक्ष्म संतुलन बनाए रखा। उन्होंने कभी भी अपनी विद्या का दुरुपयोग नहीं किया और अंत तक तप, संयम और सेवा के मार्ग पर डटे रहे।
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🧘 महाभारत युद्ध के बाद कृपाचार्य का जीवन
युद्ध समाप्त होने के बाद, जब युधिष्ठिर ने राजगद्दी संभाली, तब उन्होंने कृपाचार्य से अनुरोध किया कि वे उनके पुत्रों को शिक्षित करें। कृपाचार्य ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और पारिक्षित को शिक्षा दी, जो अभिमन्यु का पुत्र था।
इसके बाद, गुरुकृपाचार्य ने हस्तिनापुर छोड़ दिया और उत्तर दिशा के वन में चले गए। वहाँ उन्होंने गहन तपस्या की और ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया।
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🛕 कृपाचार्य और भविष्यवाणी
मान्यता है कि कलियुग के अंतिम चरण में जब धर्म का पूर्ण रूप से ह्रास हो जाएगा और कल्कि अवतार पृथ्वी पर जन्म लेंगे, तब गुरुकृपाचार्य उनके गुरु बनेंगे। यही कारण है कि उन्हें आज भी जीवित माना जाता है और कई साधु-संन्यासी दावा करते हैं कि उन्होंने हिमालय में गुरुकृपाचार्य के दर्शन किए हैं।
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🔮 कृपाचार्य की चमत्कारी सिद्धियाँ
1. शरीर पर नियंत्रण
गुरुकृपाचार्य को अपने शरीर को स्थिर, रोगमुक्त और युवा बनाए रखने की सिद्धियाँ प्राप्त थीं।
2. दूरश्रवण और दूरदर्शन
वह सैकड़ों योजन दूर की घटनाएँ भी ध्यानमग्न होकर देख और सुन सकते थे।
3. अमृत तत्त्व की साधना
उन्होंने अमरत्व को केवल वरदान के रूप में नहीं, बल्कि तप के द्वारा भी सिद्ध किया।
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🕉️ कृपाचार्य की प्रेरणा और आज का सन्देश
गुरुकृपाचार्य की कहानी हमें सिखाती है कि —
ज्ञान और धर्म के मार्ग पर चलने वाले को समय चाहे कैसा भी हो, उसका कल्याण निश्चित होता है।
तप, सेवा और संतुलित दृष्टि से जीवन जीने वाला अमरत्व को भी प्राप्त कर सकता है।
जब पूरा युग युद्ध में डूबा हो, तब भी शांतचित्त और नीति का पालन करने वाला व्यक्ति जगत में पूज्य बनता है।
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📝 निष्कर्ष
गुरुकृपाचार्य न केवल महाभारत के युद्ध के योद्धा थे, बल्कि वे एक जीवंत पुरातन मूल्यों के प्रतीक हैं। वे ज्ञान, सेवा, तप और निष्ठा के आदर्श हैं। आज जब हम आधुनिकता के शोर में आत्मा की आवाज़ को भूल रहे हैं, कृपाचार्य जैसे अमर व्यक्तित्व हमें याद दिलाते हैं कि ध्यान, संयम और नीति ही मानव जीवन की सच्ची पूँजी है।
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